क्यूँ रोकूँ मैं तुझे ...
तू निर्मल जल समूह धारा प्रचंड
मदमस्त बलखाती लय पर सवार
नदी नाले वन सजीव विजयी
अपनी धुन में मंत्रमुघ्द अलाप
क्यूँ रोकूँ मैं तुझे ....
तुझमे कांति नभ छूने की
व्योम के ध्रुव को प्रकाशित करने की
उर्जा तुझमे अनंत
दृढ़ता तुझमे प्रचंड
क्यूँ रोकूँ मैं तुझे ....
तू आत्मा विश्वास का जीवंत स्वरुप
मनुष्य की प्रचुर चेष्टा का प्रतीक
तुझमे बसी गंगा की धार
गिर के उठी तू बार बार
क्यूँ रोकूँ मैं तुझे ...
तू निरंतर जीवन का अमित सार
प्रकृति के चिरंजीवी का स्वरुप साकार |
कैसे रोकूँ मैं तुझे ....
PS :dedicated to a father on what he is feeling for his daughter's success and the comments of the society for her travel abroad
1 comment:
wonderful poem!..
after reading it though i had some tangent thoughts of how hindi, or for that matter any indian language, seems to be losing its roots over India (Urban India at least). I've read Hindi after over 2 years today!!
Do you think its a lost cause (i.e. there are many more urgent things to be done in India) or should one do something about it?
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